सभी प्रिय पाठकों का @aaghaz_e_nisha website पर हार्दिक स्वागत है। दोस्तों यह ज़रूरी नहीं की किस्से कहानियों के लिए किताब़ खोलनीं पड़े किताबों के अलावा भी किस्से कहानियों का मज़ा लिया जा सकता है। बस ज़रूरत है, तो अपने अंदर झांकने की और उसे कागज़ पर उतरने की ज़रूरी नहीं कि किसी कहानीं को लिखने के लिए आपको एक मंझा हुआ लेखक होना ज़रूरी है। देखा जाए तो हमारे आसपास कईं किस्से कहानियों के भंडार है। और ये किस्से आपके बचपन से जुड़े हो सकते हैं। कुछ किस्से कहानियांआपके आसपास के माहौल से जुड़ी हो सकती है, तो कुछ मोहल्ले की कुछ रिश्तेदारों की या कुछ सीक्रेट सच पूछो तो अपना पूरा जीवन ही किस्से कहानियों से भरा पड़ा है। अगर आपके अंदर लिखने का जज़्बा है! तो आप कहीं से भी कोई कहानीं उठा सकते हैं। उसे लिख सकते हैं, जैसे कि मेरे अधिकतर किस्से कहानीयां 1990 के आसपास की है। क्योंकि मेरी बचपन की यादें उस समय से जुड़ी हुई है। और बचपन से ज़्यादा किस्से और कहां मिलेंगे! क्योंकि बचपन ही तो एक ऐसा आईना होता है। जहां सब कुछ साफ़ नज़र आता है। क्योंकि बड़े होते ही ज़िंदगी बनावटी सी हो जाती है।
अगर आप भी इस सदी के यानि कि (1990) के आसपास के हैं, या इस सदी से जुड़ी हुई किस्से कहानियों में दिलचस्पी रखते हैं! तो आप सही जगह आए हैं। आपको हमारी इस वेबसाइट में बहुत ही रोमांचक एवं दिलचस्प किस्से कहानियां पढ़ने को मिलेंगी अगर आपको यहां से कुछ किस्से कहानीयां पसंद आईहों या, कुछ कहानींयां कुछ पल आपके दिल को छुएं तो कृपा कर हमें कमेंट कर ज़रूर बताएं एक बार फ़िर से हमारी वेबसाइट में आने के लिए आप सभी का दिल से “धन्यवाद“
आप सभी की जानकारी के लिए बता दूँ। कि यह सभी लेख स्वयं मेरे द्वारा लिखित है। इसमें मेरे सिवाए अन्य कोई दूसरा भागीदार नहीं है। ये सभी लेख सिर्फ़ और सिर्फ़ पाठकों के मनोरंजन हेतु प्रस्तुत किए गए है।
1. जलवा रेड़ियो का
बात लगभग 1990 के आसपास की है। जब मैं एक छोटी सी बच्ची हुआ करती थी, उस वक्त रेडियो का बहुत चलन हुआ करता था,बस कुछ गिने-चुने घरों में ही रेडियो दिखा करता था। एक दिन हमारे घर भी रेडियो का आना हुआ। और उस दिन हम बहुत उत्साहित थे। ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे, बस अब तो रेडियो को चलाने भर की देर थी, सारे मोहल्ले में मानो जैसे ख़ुशी की लहर चल रही थी। हमारे घर के आंगन में गांव के बच्चे बूढ़े जवान सभी की भीड़ जमा हो गई। और हम यह नज़ारे
देख-देख फूले न समाए फ़िर क्या था, कि रेडियो को ऑन किया गया पहले तो उसमें से झर झर की आवाज़ आने लगी और जो लोग पहले से थोड़े जानकार थे। वे बोले अरे इसका एंटीना तो ऊपर खींचे तभी तो यह गाना पकड़ेगा न फ़िर क्या था, एंटीना को खींचतान कर खड़ा किया गया। फ़िर रेडियो में से अचानक एक मैडम की आवाज आई और वह खनकती आवाज़ में बोली, यह आकाशवाणी है। अब समय है, आज के समाचारों का, उस समय तो समाचार भी काफ़ी एंटरटेनिंग लगता था।
और जब गाना बजता तो! क्या ही कहनें जैसे ही रेडियो में गाना बजना हम सभी बच्चे झूम झूम कर उछल कूद कर नाचते गाते चिल्लाते ख़ूब धूम, धमाल मचाते ख़ूब मस्ती करते। उन दिनों तो मानो हमारी चाल में कुछ अलग ही अकड़ होती थी। कि हमारे घर में रेडियो है, भई! ! मां सुबह-सुबह रेडियो ऑन कर भजन सुनती और हम शाम को स्कूल से आने के बाद रेडियो में गाना चलाकर ख़ूब नाचते गाते और उसमें लगे बटन को मरोड़ मरोड़ कर सूईं के कांटे को इधर से उधर घूमाकर चैनल बदलते रहते। फ़िर धीरे-धीरे समय बदलता गया। और कुछ सालों बाद रेडियो बूढ़ा होने लगा। बेचारा बीमार सा रहने लगा। उसकी सांसे अटक-अटक कर चलने लगी। उसमें लगा सूईं का कांटा जैसे थरथरने लगा था। और उसकी दिल की धड़कनें रूकी-रूकी सी रहनें लगी थी। कभी-कभी तो उसकी सांसे ऐसे रुक जाती की थपकियां मार मार कर उसे जगाना पड़ता क्योंकि अब वह ओल्ड फैशन जो हो चुका था, उसकी जगह अब टेप रिकॉर्डर ने जो ले ली थी। अब तो जिसके घर में टेप रिकॉर्डर होता उसकी चाल में अलग ही अकड़पन आ जाता! पर, उस रेडियो को हम कभी नहीं भुला पाएंगे, जिससे हमारे बचपन की कई सारी प्यारी यादें जुड़ी हुई है..
written by Nisha Shahi
2. जामुन का पेड़
यह मज़ेदार किस्सा आज से लगभग 40-42 साल पुरानी यानि कि सन् 1980 के आस पास उत्तराखण्ड के देहरादून घाटी के एक गाँव की है। उस छोटे से गाँव में घाटियों के ऊपर खेतो के पास एक घर में एक जामून का पेड़ हुआ करता था। जब भी जामुन का मौसम आता। तब उसमें ये मोटे-मोटे मीठे रसीले जामुन लगा कारते थे और उन जामुनों को देख गाँव के सभी बच्चों का मन ललचाने लगता। पर ये जामुन पाना इतना आसान नहीं था जनाब! क्योंकि जिस घर के आंगन में यह पेड़ था, वहाँ पर रहा करती थी एक हिटलर दादी ! और उनका नारा, कि प्राण जाए पर उनके जामुन न जाए। जब जामुनों का मौसम आता तो पेड़ पके जामुनों से लद जाता, फिर क्या था ? हिटलर दादी पेड़ के आस-पास ही रहा करती और जामुनों की पहरेदारी करती। बेचारे बच्चे अब करें भी तो क्या करें गर्मीयों की छुट्टीयों के दिन होते थे। बस बच्चे लग जाते दादी की जासूसी में कि कब यें आराम करतीं हैं और कब टहलनें जातीं है। कब आतीं है। दादी की सुबह से लकर सायं तक की दिनचर्या की पूरी जानकारी रखते। सिर्फ़ और सिर्फ़ रसीले जामुनों की खा़तिर! और जब कभी जामुन वाली दादी घर पर नहीं होती, तो, हम बच्चे लग जाते, मिशन-ए-जामुन पर !
एक दिन अचानक कहीं से जानकारी मिली कि जामुन वाली हिटलर दादी घर से कहीं बाहर गई हुई है। करीब तीन-चार घंटे बाद ही लौटेंगी फिर क्या था, उषा, नीरू और सुजाता निकल पड़ी जामुन-ए-मिशन पर उषा झटपट से पेड़ पर चढ़ी और जामुन की टहनियों को हिलाने लगी। जामुन भरभराकर नीचे गिरने लगे। और सुजाता नीचे गिरे हुए जामुनों को इकठ्ठा करनें लगी। और उधर नीरू को चौकीदारी पर लगाया गया।अचानक से तीनों चौंक पड़ी उन्हें कहीं से जामुन वाली दादी की आवाज़ आने लगी सीमा पर तैनात नीरू ने आगाह किया और ज़ोर से चिल्लाई “उषा जामुन वाली दादी आ गई। जल्दी पेड़ से नीचे उतर” ! सुजाता बोली “नीरू तू कहीं झूठ तो नहीं बोल रही है, न” नीरू अपने सर पर हाथ रखती हुई बोली “विद्या माता की क़सम सच में जामुन वाली दादी ही है। और उनके हाथों में एक मोटी सी छड़ी भी है। लगता है, आज तो दादी हमारे हाथ पैर सूजा कर ही मानेंगी।
उषा और सुजाता दोनों का डर के मारे बुराहाल. जैसे ही उषा हडबडाहट में पेड़ से नीचे उतरने लगी। अचानक से उषा का पैर पेड़ की दो टहनियों के बीच फंस गया और वो दहाड़े मार कर रोते हुए बोली । देखो तुम लोग मुझे छोड़कर मत जाना और जल्दी से मेरा पैर छुड़ाओ यहां से। पहले तो उषा के पैरों की खिंचा-तानी हुई,पर बात न बानी, फ़िर न जाने कहाँ से सुजाता के इंटेलिजेन्ट दिमाग़ में एक आईडिया आया। उसने उषा के पैर पर जिस जगह से पैर फंसा हुआ था, उस जगह पर थूकना शुरू कर दिया। और कहने लगी कि “ऐसा करने से पैर गीला हो जाएगा और फ़िसल कर बाहर निकल जाएगा। और ऊपर से नीरू की कंपाने वाली बाते कि ” उषा अब तो तेरा पैर काटना पड़ेगा”। बेचारी उषा डर के मारे थर-थर कांपने लगी और उधर से जामुन वाली दादी हाथ में छड़ी लेकर आती दिखाई दी। तीनों घबरा गई। तब उषा ने आव देखा न ताव और पूरी जान लगा दी अपना पैर निकालने के लिए और कामयाब भी हुई। इससे पहले कि दादी की छड़ी पड़ती ये तीनों वहां से जामुन लेकर रफूचक्कर हो गई।
(यह कहानि उस वक्त के बच्चों की मासूमियत को और अपने से बड़ो के प्रति डर कह लो या आदर को दर्शाती है। )
written by Nisha Shahi
3. जब मोहल्ले में लगता वी . सी. आर
आज ज़माना कहां से कहां पहुंच गया है। सबके हाथ में मोबाइल फ़ोन है। और उस छोटे से मोबाइल फ़ोन में, समझो लगभग सारी दुनियां समाईं हुई है। जैसे कि ई-बैंकिंग, राशन-पानी दूध, दवाई, ऑनलाइन शॉपिंग क्या कुछ नहीं है। आजकल तो बाज़ारों में भी भीड़ कम होने लगी है। अब तो जबसे सबके हाथ में फ़ोन आया है। लोगों की टीवी से भी दिलचस्पी कम होने लगी है। बस एक छोटा सा फ़ोन और काम बड़े-बड़े देखा जाए तो, अब हम एक अलग ही आधुनिकता के दौर से गुज़र रहे हैं।
लेकिन पहले ऐसा नहीं, था। पहले की ज़िंदगी आज की ज़िंदगी से काफ़ी अलग हुआ करती थी।
शायद आज की युवा पीढ़ी को यह तक यकीन नहीं होगा कि 1980-1990 के दशक में हर घर में टेलीविजन तक नहीं हुआ करता था। टेलीफ़ोन तो दूर की बात है। और उस वक्त मोबाइल जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी। उस वक्त तो लैंडलाइन फ़ोन हुआ करते थे। और वह भी हर किसी के बस की बात नहीं थी। केवल ऊंचे तबके के लोगों के घर में ही देखनें को मिलता था। आम लोगो की सहूलियत के लिए जगहं-जगहं पर p .c .o बूथ लगे होते थे। अब ज़्यादा देर ना करते हुए, चलिए आज आपको 1990 के दशक की सैर करवाते हैं,
बात कुछ 1990 के आसपास की होगी उस वक्त हर किसी के घर में टीवी नहीं होता था। यदि होता भी था, तो, ब्लैक एंड व्हाइट होता था। और उन दिनों वी.सी.आर यानी की (वीडियो कैसेट रिकॉर्डर) का बहुत चलन था। और इसका बिजनेस बहुत ज़ोर पकड़ रहा था। हर एक गली छोड़कर किराए पर वी.सी.आर सेट मिलता था। कम से कम महीने में एक बार शनिवार के दिन रात को मोहल्ले में वी.सी.आर लगाया जाता था। क्योंकि अगले दिन रविवार को सभी की छुट्टी होती थी। मोहल्ले वाले थोड़ा-थोड़ा चंदा इकट्ठा करते और किराए पर वी.सी.आर का सेट लगाते थे। उसमें दो-तीन फिल्मों की कैसेट और कलर टीवी होता था। कलर टीवी को देखते ही आंखें चमक सी जाती थी। क्योंकि घर के ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में रंगों का अभाव रहता था। पर कलर टीवी के तो क्या ही कहनें !
हीरो हीरोइन के वह रंग-बिरंगे चमक धमक वाले कपड़े और, रंग-बिरंगे, जगमगाते फूल, पहाड़ सुंदर नज़ारे देख कर मन ख़ुश हो जाता बस हर महीने की किसी भी शनिवार को लग जाता वीडियो का सेट मौहल्ले के किसी भी आंगन में, रात भर तीन-चार फिल्में देखकर रविवार को सारा दिन सोते रहते। और फ़िर अगले दिन बस फिल्मों की चर्चाएं शुरू हो जाती कि हीरो ने कैसे फाइटिंग की थी। हीरोइन की कौन सी ड्रेस अच्छी थी। कॉमेडी सोच-सोच कर हंसते सच कहूं तो आज हजारों रुपए खर्च कर कर भी थिएटर में ऐसा मजा नहीं आता।
जैसे ही वीडियो सेट लगाने की तैयारी होती, सबसे पहले आंगन में, या किसी एक के घर के बरामदे में वी. सी. आर लगाया जाता,छोटे बच्चों के लिए दरी बिछाई जाती और उनको सबसे आगे बिठाया जाता, फ़िर महिलाएं और पुरुष अपनी अपनी कुर्सियां डाल लेते। और फि सभीआँखे गड़ाए एक तक बस टीवी को ही घूरते रहते। और तो और थिएटर वाली फ़ील लाने के लिए ,कोई मूंगफली लेकर बैठता तो, कोई नमकीन तो कोई पॉपकॉर्न खाता नज़र आता महिलाएं अक्सर विलन को कोसती नज़र आती, साथ ही बच्चे और बूढ़े फाइटिंग से रोमांचित हो उठते।
और कॉमेडी में सभी एक साथ मिलकर हंसते और कभी इमोशन में एक साथ आंसू बहा लेते थे। ले-देकर एक टिकट के खर्चे पर पूरा परिवार तीन से चार फिल्मों का आनंद उठा लेता था। और फ़िर अगले दिन रविवार को सारा दिन सोते पड़े रहते थे। पर हम बंदर बच्चों को तो नींद ही कहां आती! हम तो अपने खेल मस्ती में लग जाते सच कहूं तो वह ज़माना ही कुछ और था।
चाहे सुख हो या दुःख सारा गांव एक साथ होता। ख़ुशी में एक साथ झूम लेते तो, ग़म आने पर दर्द एक दूसरे के साथ बांट लिया करते थे। उस वक्त सबके अंदर एक मासूम और निर्मल दिल बसता था।
परंतु आज के ज़माने में तो भाई ही भाई को अकड़ दिखाता है, और तो और अपने रिश्तेदार ही पहचानने से इनकार कर देते हैं। क्योंकि जॉइंट फैमिली से न्यूक्लियर फैमिली का चलन जो हो गया है। काश वह समय फ़िर से लौट आता जब सारा मोहल्ला बिना स्वार्थ भाव से एक दूसरे के साथ हर सुख-दुख में एकजुट खड़ा नज़र आता था।i
written by Nisha Shahi
4. जंगली सांड का डर !!
बात यही कोई 1990 के आसपास है। उत्तराखंड के एक छोटे से गांव में एक छोटी सी बच्ची अपनी मां के साथ जंगल में कुछ लड़कियां वह घास लेने गई पहले तो मां ने बहुत मना किया कि बिटिया जंगल में बहुत खतरा है। वहां पर कभी भी, कोई भी जानवर आ सकता है। और उन दिनों एक जंगली सांड़ जिसे वहां की आम भाषा में
(खैला) कहा जाता था। वह काफ़ी चर्चा में था। जंगल में वह अक्सर लोगों को नुकसान पहुंचता था। वह लोगों के पीछे पड़ जाता था। मां ने बच्ची को बहुत समझाया पर बच्ची की ज़िद के आगे मां की एक न चली और वह बच्ची को अपने साथ जंगल ले जाने के लिए तैयार हो गई।
इतने में बच्ची हंस कर बोली कि मां वैसे भी तुम तो हो मेरे पास, फ़िर मुझे क्या डर!
और फिर वह मां से बातें बनाते हुए, मां से कहने लगी कि मां तुम पेड़ों से पत्तियों व सुखी लड़कियां नीचे फेंकना और मैं जमा करती जाऊंगी। और इस तरह काम जल्दी हो जाएगा। फ़िर उसके बाद हम दोनों मिलकर ख़ूब सारे मीठे-मीठे बेर तोड़ेंगे। और वापस घर आ जाएंगे। फ़िर क्या था उसने आखिरकार मां को मना ही लिया मां ने हाथ में हसिया और कुल्हाड़ी पकड़ी और कुछ रस्सियां भी ले लीं फ़िर चल पड़ी दोनों जंगल की ओर बच्ची खेलते कुदते अपनी मां के साथ बतियाते हुए गांव के पास वाले जंगल में पहुंच गई। मां ने एक पेड़ के नीचे बेटी को रूकने के लिए कहा और घास लकड़ी के लिए पेड़ पर चढ़ गई।
माँ ऊपर से घास की पत्तियां और कुछ सुखी लकड़ियां फेंकती जाती और बच्ची उन्हें अलग-अलग इकट्ठा करने लगती। तो कभी पेड़ को पकड़ कर उसके एक ईर्द-गिर्द घूमते हुए गुनगुनाने लगती। इतने में अचानक से बच्ची को झाड़ियां के पीछे से सरसराहट की आवाज़ सुनाई दी, फ़िर एकदम से रुक गई फ़िर से अचानक आभास हुआ। कि जैसे किसी जानवर के कदमों की आहट हो, तभी बच्ची को एकदम से मां की कही बात याद आई। कि आजकल जंगल में मारने वाला खैला (सांड) घूमता है। उसने झट से डर के मारे जोर से माँ को पुकारा, “माँ लगता है, कि मारने वाला खैला (सांड) आया है। तब माँ भी दर गई। और बच्ची से बोली, बेटा आ जा ऊपर पेड़ पर चढ़ जा”।
बच्ची रोने लगी और बोली कि माँ मुझे पेड़ पर चढ़ना कहां आता है? तुम जानती तो हो! मां फ़िर से कहने लगी डर मत मैं नीचे आती हूं, मैं हूं न तू मत डर। बच्ची एकदम से बोली “नहीं, नहीं, माँ तुम नीचे मत आओ नहीं तो हम दोनों ही मारे जाएंगे” इतने में माँ मुस्कुरा कर बोली “अच्छा चलो अब घबराओ नहीं ऐसा करो हाथ पैरों को पेड़ पर जामाओ और मज़बूत पकड़ के साथ हाथ पैरों को सरका कर ऊपर आने की कोशिश करो ठीक वैसे ही जैसे तुम नहर में हाथ पैर छपछपा कर तैरते हुए आगे बढ़ती हो”! बच्ची ने कोशिश की पर पहली बार में सफ़ल न हो पाई माँ बोली “प्रयास करो नहीं तो मैं ही नीचे आती हूं” बच्ची प्रयास करती रही पर पेड़ पर चढ़ नहीं पा रही थी।
अचानक से सरसराहट तेज होने लगी लगा जैसे कि कोई जानवर तेजी से दौड़ा चला आ रहा हो । अब तो माँ भी डर गई और ज़ोर से चिल्लाई “बिटिया ऊपर चढ़ नहीं तो मैं आती हूं”! तब लड़की ने आव देखा न ताव और रॉकेट के समान सरपट पेड़ पर चढ़ गई। और उसकी माँ उसको ताकती रह गई। क्योंकि बच्ची अपनी माँ से ऊपर वाली शाखा में जाकर जो बैठ गई थी! माँ बच्ची को शाबाशी देते हुए से कहने लगी। कि शाबाश मेरे शेर, मेरे बच्चे तुमने कर दिखाया! अब दोनों माँ बेटी की नज़र उसी जगहं टिकी हुई थी। जहां से जानवर के आने की आहट हो रही थी। और फ़िर अचानक से ऐसा क्या दिखा कि मां बेटी की जान में जान आई। इसके लिए आगे पढ़िए –
यह क्या माँ बेटी क्या देखते हैं, कि सामने से कुछ चरवाहे, यानी गाय चराने वाले भाई जंगल में अपनी गायों को चराने आए थे, और कुछ गाय इधर-उधर दौड़ रही थी, तब कहीं जाकर दोनों माँ बेटी जान में जान आई। और वह चरवाहे उनके गांव के ही निकले माँ ने आवाज़ दी भाई तुमने तो हमारी जान ही निकाल दी थी। हमनें तो सोचा जंगली खैला यानी साड़ आया है। गांव में सांड़ को खैला कहा जाता है। इतने में वह चरवाहे बोले – अरे बहन जी आप!
नमस्ते अरे आज छुट्टन भी आई हुई है। और पेड़ पर चढ़ी बैठी है। माँ बोली “भाई तुम्हें आसपास जंगली खैला तो नहीं दिखा” चरवाहे बोले “नहीं नहीं पर उसका भरोसा नहीं अगर आपकी घास लकड़ियां हो गई हों, तो, चलिए हम आपको सड़क तक छोड़ देते हैं” इस पर महिला बोली अरे नहीं यह तो रोज़ का ही काम है। हम चले जाएंगे बस ये घास और लकड़ी की गठरी उठाने में मदद कर देना। मैं अभी पेड़ से उतर कर नीचे आती हूं”।
माँ नें लड़की से कहा “चलो बिटिया अब नीचे उतरो” तब बच्ची रूआसी होकर बोली “चढ़ तो गई माँ अब उतरूं कैसे? इस बात पर सब ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे। फ़िर क्या था। माँ ने और चरवाहों ने उसे पेड़ से उतरने में मदद की, और चरवाहों ने घास की गठरी महिला के सर पर रखी। और बच्ची को पोटली में से ढ़ेर सारे मीठे-मीठे बेर भी दिए फ़िर दोनों मां बेटी घर की और रवाना हो गई। बच्ची माँ से बार-बार यही कहती जा रही थी। “ना बाबा ना अब ना आऊंगी जंगल में, मैं तो घर पर ही अच्छी हूं”!
माँ बोली “अच्छा मत आना पर एक बात तो अच्छी हुई ना! कि तुम पेड़ पर चढ़ना सीख गई”! बच्ची बोली “अरे हां! यह तो मैंने सोचा ही नहीं” माँ ! और फ़िर दोनों मां बेटी ठहाके लगाते हुए घर की और बढ़ चली।
written by Nisha Shahi
5. अड़गड़ा, काँजीहौस (पशुओं की जेल)
बात लगभग यही कोई 1985/1990 के आसपास की होगी जैसे कि मैं अधिकतर अपने बचपन के किस्से अपने प्रिय पाठकों के साथ साझा करती हूं। तो आज एक और मज़ेदार किस्सा आपके सामने प्रस्तुत करने जा रही हूं।
की आपने कभी मवेशियों यानी पालतू पशुओं की जेल के बारे में सुना है। मैं जानती हूं। कि कुछ लोगों का हाँ मे होगा। और कुछ लोगों का ज़वाब ना में तो फ़िर चलिए जिनका जवाब हाँ में है। उनकी यादें ताज़ा हो जाएँगी और जिनका ज़वाब ना, मे है। उन्हें जानकारी मिल जाएगी। तो मैं यहां पर बात कर रही हूं। अड़गड़े काँजीहौस की
काँजीहौस या अड़गड़े का मतलब है पालतू पशुओं की जेल या क़ैदख़ाना इनमें उन जानवरों को रखा जाता था जो दूसरों की फसलों या चीजों को नुकसान पहुँचाया करते थे। काँजीहौस में पशुओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। वहाँ पर उन्हें खाना पानी नहीं दिया जाताथा। जिससे कि वह काफ़ी कज़ोर हो जाते। औरफ़िर जब उनके मालिक उन्हें लेने नहीं आते तो, उन्हें नीलामी करके बेच दिया जाता।
और तो और काँजीहौस के नियम इतने सख़्त होते की हर रोज पशुओं की हाज़िरी ली जाती। इससे पशुओं की संख्या का पता चलता ताकि यदि कोई जानवरक़ैद भाग जाए। या भगा दिया जाए। तो उसका तुरंत पता लगाया जा सके।
एक रजिस्टर बनाया जाता। जब किसी पशु का मालिक उसे लेने आता तो, उसे बाकायदा हस्ताक्षर करने होते। कि मैं अपने पशु को अपने साथ ले जा रहा हूं और इतनी रकम जमाने के तौर पर भर रहा हूं। और उसके बदले में उसको एक रसीद भी दी जाती थी।
हमारे घर में भी दो गाइयाँ हुआ करती थी। एक का नाम था भूरी क्योंकी वह भूरे सफ़ेद रंग की थी। और दूसरी का नाम था। कन्नी उसका रंग कला था। दोनों बहुत बदमाश और शरारती थी। अपने खेतों की हरियाली छोड़कर पड़ोसियों के खेतों की हरियाली पर उनकी नज़र रहती थी। और मौका पाते ही वह पड़ोसियों के हरे भरे खेतों को चट कर जाया करती थी। और चालक तो इतनी थी। कि इस काम को बड़ी सफ़ाई से अंजाम देती थी। पर अक्सर पकड़ीं भी जाती थी। शक होता तो पड़ोसी हमें वार्निंग देते। कि इस बार तो छोड़ दिया। अगर अगली बार ऐसा होगा तो तुम्हारी गायें सीधा अड़गड़े यानि काँजीहौस जाएगी। हमारे उत्तराखंड की सरल भाषा में पशुओं की जेल को अड़गड़ा कहा जाता था।
फ़िर क्या हम उन्हें पड़ोसीयत का वास्ता देकर चुप करा लेते। जैसे बच्चों के स्कूल लिए। सुबह-सुबह चौराहे पर उनकी बस आती है। बच्चों को भरकर ले जाती है। ठीक उसी तरहं हम भी अपनी गाइयों को चरवाहे के साथ सुबह-सुबह घास चरने के लिए जंगल में भेजते। और सुबह ही सब लोग अपनी अपनी गायों को लेकर गांव के चौराहे पर जाते। उधर से चरवाह उन्हें अपनी देखरेख में जंगल ले जाता। और शाम को 5:00 बजे वहीं चौराहे में छोड़ जाता। और फीस होती दो या तीन रुपये प्रति जानवर। कभी-कभी कोई गाई चरवाहे को चकमा देकर किसी के खेत खलिहान में घुस जाती। पकड़ी जाती तो खेत के मालिक उन्हें पड़कर सीधा ले जाते। कहाँ? जी हां मवेशियों की जेल यानि। अड़गड़े ले जाते थे। यह एक ऐसी जगह होती, जहां एक बड़ा सा तबेला होता जिसमें कई सारी खूंटियां गड़ी होती उसमें ले जाकर इन्हें बांध दिया जाता। और जब तक मवेशियों के मालिक न आ जाए उन्हें नहीं छोड़ा जाता। और जब मवेशियों के मालिक आते तो उनसे जमानत के तौर पर मोटी रक़म चुकानी होती थी। ठीक से तो याद नहीं पर शायद कम से कम उस वक्त जुर्माने की रकम दस या बीस रुपए हुआ करती थी। उस वक़्त ये अपने आप में काफ़ी बड़ी रक़म होती थी।
यदि गांव में से किसी का भी मवेशी अड़गड़े में मिल जाता तो वह उस चरवाहे पर बरस पड़ता। कि उसने उनके मवेशियों का ठीक सेख़्याल क्यों नहीं रखा? और उसकी लापरवाही से आज उन्हें जुर्माना देने की नौबत आ गई। मवेशियों के इसलिए हम अपने मवेशियों का पूरा ख़्याल रखते थे। उन्हें भरपेट चारा खिलाते थे। ताकि वह किसी के खेत खलियानों का नुकसान ना करें क्योंकि इसकी भरपाई हमें ही करनी पड़ती थी।
पर आज सड़क किनारे गाइयों को यूँ भूखा,प्यासाघुमते देख उनकी ऐसी दयनीय दशा पर तरस आता है और मन दुःखी होता है।
written by Nisha Shahi