धार्मिक पौराणिक कथाएँ

मन को प्रसन्न कर देने वाली भक्तिभाव वाली पौराणिक कथाएँ

कुछ कहानियां ऐसी होती है। जो हम अपने दादा – दादी, नाना -नानी के द्वारा बचपन से सुनते चले आ रहे है। और वो आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। जैसे कि: नैतिक कहानियाँ पौराणिक कथाएँ, लोक कथाएँ, दन्त कथाएँ। आइये आज हम पौराणिक कथाओं की बात करतें हैं

पौराणिक कथाएँ:

.देवी देवताओं के चमत्कारों एवं लीलाओं से जुड़ी कहानियाँ पौराणिक कथाओं के अंतर्गत आती हैं।

.पौराणिक कथाओं मे देवी, देवता, नायक, और असुरों की विशेष भूमिका होती है।

.कहीं न कहीं पौराणिक कथाओं को भारतीय एवं नेपाली संस्कृति का विशेष अंग माना गया है।

.पौराणिक कथाओं का वर्णन केवल वेद पुराणों में ही मिलता है।

1. “बांकेबिहारी जी की पोशाक न पहनने की ज़िद

बहुत समय पहले की बात है। वृंदावन में एक वृद्ध महिला रहा करती थी। जो कि श्री बांके बिहारी जी की अनन्य भक्त थी।एक बार शरद पूर्णिमा से कुछ दिन पूर्व मैया ने बांके बिहारी जी के लिए चाँदी की तारों से जड़ित श्वेत रंग का एक बहुत ही सुंदर पोशाक तैयार किया। और शरद पूर्णिमा की प्रतीक्षा करने लगी। और चरों तऱफ उस सुन्दर पोशाक का गुणगान करके सब जगह ढिंढोरा पीटती रहती कि इस शरद पूर्णिमा को तो बांकेबिहारी जी मेरी बनाई हुई पोशाक पहनेंगे देखो कितनी सुंदर पोशाक बनाई है, मैंने बिहारी जी के लिए, और फिर शरद पूर्णिमा से एक दिन पूर्व पोशाक लेकर बांके बिहारी जी के मंदिर गई। और गुसाई जी को पोशाक देते हुए बोली, कि गुसाई जी इस बार शरद पूर्णिमा के दिन बांके बिहारी जी मेरे द्वारा बनाई गई यह चांदी की ज़री श्वेत रंग की पोशाक पहनेंगें। लीजिए संभालिए इसे। और जैसे ही गुसाईं जी ने पोशाक लेने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाया, तभी गुसाई जी के पास राजा के दो सैनिक आते हैं। और उन्हें एक पत्र देते हैं। गोसाई जी पत्र पढ़ते हैं, तो पत्र में लिखा होता है। कि आने वाली शरद पूर्णिमा के दिन हमारे द्वारा बनाई गई पोशाक बांके बिहारी जी को पहनाई जाएगी।

अब गुसाई जी क्या करें? कभी मैया की तरफ़ देखें, तो कभी राजा की चिट्ठी की तरफ़ देखें। अब गुसाई जी धर्म संकट में पड़ चुके थे। कि राजा को मना कर नहीं सकता और मैया का दिल दुखा नहीं सकता। फ़िर उन्होंने थक-हार कर मैया से कहा देखो मैया राजा के यहां से चिट्ठी आई है। बांके बिहारी जी ने राजा जी के वस्त्र पहनने का सोचा है। इसीलिए चिट्ठी आई है। इसलिए मैया तुम अभी अपनी यह पोशाक वापस ले जाओ, फ़िर किसी दिन पहना देंगे बिहारी जी को। मैया दुखी होकर रोते हुए बोली कि हाँ-हाँ यह मुझ गऱीब को ठाकुर कोई है? यह तो पहले राजा को ठाकुर है। तो राजा के ही वस्त्र पहनेगो अब यह वस्त्र मेरो किस काम को ? रखो इसे यही और ऐसा बोलकर मैया ने रोते हुए वह वस्त्र वहीं पर ठाकुर जी के आगे फेंक दिए और र=रोते हुए दुःखी मन से घर वापस चली गई।

गुसाई जी के सेवक ने वह पोशाक संभाल कर एक तरफ़ रख दिया। और फ़िर जैसे ही शरद पूर्णिमा का दिन आया तो, राजा अपने साथ ठाकुर जी के वस्त्र लेकर ठाकुर जी के सामने हाज़िर हो गए और गुसाई जी की ओर पोशाक बड़ाते हुए बोले, लीजिए गुसाईं जी, बिहारीजी को यह पोशाक पहना दीजिए। और गुसाईं जी ने पोशाक
राजा से लेकर, जैसे ही बिहारी जी पहनाने लगे। तो बिहारी जी अपनी लीला दिखाने लगे। गुसाई जी पोशाक पहनावें पर बिहारी जी पोशाक पहननें को राज़ी ही न हो। अगर गोसाईं जी एक हाथ की बाजू घुसाएँ, तो दूसरी से निकल जाए और जब दूसरी तरफ़ से पहनाएं तो, बिहारी जी पहली तरफ़ से निकाल दें, ऐसा करते-करते गुसाईं जी थक हार कर, राजा से बोले राजन लगता है। आज बिहारी जी यह पोशाक पहनना नहीं चाह रहे हैं। राजा बोले ठीक है। कोई और वस्त्र है, तो ले आओ देखते हैं। वह पोशाक पहनते हैं कि नहीं? फ़िर गुसाई जी सेवकों से बोले यदि कोई और पोशाक है, तो ले आओ। वहीं पर पास खड़ा सेवक बोला कि हाँ कुछ दिनों पहले जो मैया बिहारी जी के दरबार में पोशाक फ़ेंक कर चली गई थी। वह मैंनें संभाल कर रखी हुई है। आपकी आज्ञा हो तो ले आऊं। गुसाई जी बोले हाँ हाँ जो भी है, ले आओ।


और फ़िर जैसे ही सेवक पोशाक लेकर आया, और गोसाई जी ने जैसे ही बिहारी जी को पहनाने के लिए पोशाक आगे बढ़ाया तो बिहारी जी ने जैसे स्वयं अपने दोनों हाथ आगे कर दिए हो, और मुस्कुराकर कह रहे हों, कि मैं तो यही पोशाक पहनूंगा और फ़िर एक ही बार मे बड़े आराम से बांके बिहारी जी ने मैया की वह पोशाक धारण कर लिया। गुसाईं जी ने राजा को सारी बात बताई। फ़िर राजा के कहने पर बूढ़ी मैया को आदर पूर्वक बुलाया गया। जब मैया ने बिहारी जी को उस श्वेत रंग की पोशाक मे देखकर और बिहारी जी की लीला सुनकर मैया की आंखों से अश्रु धारा निकलने लगी। और मैया विलाप करते हुए अपने बिहारी जी से बोली, “मैं कितनी गलत थी, मो से गलती हो गई, बिहारी जी मोहे माफ़ी दे दो। अरे मेरो ठाकुर तो सबको है। उसकी नज़र में राजा हो या रंग सब एक समान है,

बोलो बांके बिहारी लाल की जय।

2. भक्त के वश मे हैं, भगवान्

पुराणिक कथाओं के अनुसार ब्रज के एक संत थे। कृष्ण्दास जी, जो नित्य ठाकुर जी को माला पहनाया करते थे।कृष्ण्दास जी ने कहीं से सुना था। कि यदि कोई ठाकुर जी को बारहं वर्षों तक नियम से प्रतिदिन माला पहनाए, और नियम से उनकी सेवा करे। तो बारहं वर्षों के बाद ठाकुर जी उसे दर्शन देने ज़रूर आते है। और आज भी यह संभव है। पर, एक भी दिन यह नियम टूटना नहीं चाहिए। अब तो कृष्णदास जी नित्य माला बनाते, और नंद गांव के मंदिर में जाकर कान्हां जी को हर रोज माला पहनाकर नित नियम से उनकी सेवा करते। जी से अपने मन के भाव प्रकट कर कहते। कि लाला मैं यह नियम केवल इसलिए अपना रहा हूं कि, जिस दिन बारहं पूरे हो और तेहरवें वर्ष का पहला दिन प्रारंभ हो उस दिन मैं मंदिर न आऊं उस दिन मेरा लाला स्वयं मेरी कुटिया में मुझे दर्शन देने आए। मैं उन्हें वहीं पर वह माला पहनाऊंगा।

बस इसी सोच के साथ बाबा नित्य प्रतिदिन ठाकुर जी को माला पहनाते और पुरे भाव से उनकी सेवा करतें। और जैसे-जैसे साल गुज़रते जाते तब वहबड़ी उत्सुकता पूर्वक ठाकुर जी के कान में हल्के से बोलते लाला आज पूरा 1 साल बीत गया है। अब तो बस ग्यारहं वर्ष ही बाक़ी है। फ़िर दो वर्ष बीतगए है कहते। केवल 10 साल और रह गए हैं। कुछ और वर्ष बीत जाने के बाद कहते लाला अब तो बस पांच वर्ष और रह गए हैं। फ़िर कुछ वक्त और बीत जाने के बाद कहते की लाला अब तो बस एक वर्ष और बचा है। लाल अब तो बस एक महीना और बचा है। लाला अब तो बस 15 ही दिन और बचे हैं। अब तो बाबा हर रोज़ नाचते-गाते हुए मंदिर जाते और फ़िर बारहवें वर्ष के अंतिम दिन बाबा माला लेकर ठाकुर जी के पास गए। और माला पहना हुए बोले “लाला आख़िरकार आज वो दिन आ ही गया। आज तुम्हारे इस दास की वर्षों की सेवा पूर्ण भई। अब कल मैं अपनी कुटिया में ही तुहारी प्रतीक्षा करूंगा।

और ठाकुर जी के को प्रणाम करके अपनी कुटिया की और चल पड़े। और जुट गए ठाकुर जी की सेवा के लिए। और जुट गए, ठाकुर जी के लिए छप्पन भोग बनाने के लिए। अब जैसे ही तेहरवें वर्ष की सुबह भई बाबा बाबा व्याकुलता से ठाकुर जी की राह तकने लगे। और मन ही मन सोचने लगे। मेरा लाल मुझसे मिलने आता ही होगा। मंगला भोग से लेकर राजभोग का समय होने को आया। और ठाकुर जी नहीं आये तो, बाबा अपने आपने मन को समझाने लगे, कि कोई बात नहीं है। एक अकेला में ही थोड़े ही न हूँ। उनके और भी तो भक्त होंगे गए होंगे कहीं, बस थोड़ी देर और सबर कर लूँ लाला आता ही होगो। और फ़िर जब राजभोग से लेकर संध्या हो गई लेकिन लाला तब भी नहीं आए तो, बाबा ठाकुर जी को भला बुरा कहते हुए, छप्पन भोग को समेट कर एक पोटली बना ली। और अपनी कुटिया में ताला लगाकर बरसाने की और निकल पड़े। कि अब तो श्री जी से ही ठाकुर जी की शिकायत करूंगा कि उन्होंने बहुत बड़ा धोखा दे दिया है, मोहे।

और बड़े दुखी मन से बुदबुदाते हुए आगे बढ़ने लगे कुछ दूर चलने के बाद अचानक से गायों का एक विशाल झूंड पीछे से चला आ रहा था तभी उस झूंड मे से एक नन्हे बालक की आवाज़ आई अरे ओ बाबा तनिक किनारे हे जाओ गैया आ रही देखो कही तुम्हें कोई चोट चपेट न लग जाये। पर बाबा तो बेसुधी में चले जा रहे थे उस नन्हे बालक ने फिर से ज़ोर की आवाज़ लगाई अरे बाबा तनिक किनारे हे जाओ। इस बाबार बाबा ने पीछे मुड़ कर देखा तो उन्हें गाइयों का एक बड़ा झुंड देखा तो, तब बाबा किनारे हो गए। और एक पेड़ के नीचे बैठ गए। इतने में गईयों के झुण्ड में से एक नन्हा बालक बाबा के पास आकर बैठ गया। और बाबा से बोला अरे बाबा मैने आपको कितनी आवाज़े दी,पर आप तो सुनते ही नहीं भला आपका ध्यान कहाँ था? आप कहाँ जा रहे हो ?और आपकी इस पोटली में की है बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है। तब बाबा ने अपनी पोटली खोली और उसमे से छप्पन भोग निकलने लगे जो उन्होंने ठाकुर जी के लिए बनाया था। बाबा उस बालक को देखकर बोले “लाला लगतो है, तोए भी भूख लगी है। ले तू भी कछु खा ले, यह छप्पन भोग बनाए तो वह कारे-करवा के वास्ते लेकिन वह तो धोखा दे गयो, ले अब तू ही कछु खा ले”।

तब वह नन्हां बालक अपने गोबर से सने हाथ दिखाते हुए बोला “बाबा मेरे हाथों में तो गोबर लगो है। अब तू ही अपने हाथन से खावा दे मोहे। फ़िर क्या था। बाबा बालक को अपने हाथों से खवाएं और खुद भी खाएं। अचनाक से बाबा की नज़र बालक की आँखों पर पड़ी तो की देकते है। कि उसकी आँखे लाल है, और उन आँखों से अश्रु धारा बह रही है। बाबा बोले अरे लाला तू क्यों रो रहो हो, फ़िर बालक बोला बाबा मैं या मारे रो रहा हूं, कि आज तूने मोए माला न पहनाइ। जैसे ही बाबा के कानों में यह शब्द पड़े। वह बालक से बोले कि कौन हो तुम इतने में ही श्याम सुंदर अपने असली रूप में प्रकट हो गए। ठाकुर जी बोले “बाबा आ जाओ माला लेकर मैंनें अपनों वचन निभा दियो। आपने कहीं थी। कि तेरहवें वर्ष के पहले दिन मिलनो है। तो देखो मैं आ गयो। बाबा अब मुझे माला पहना दो।

अब तो कृष्ण दास जी के नेत्र भी एकदम लाल पड़ गए, बाबा बोले तुम मेरे बुलाने से प्रकट नहीं हुए हो बल्कि तुम तो इस लाने प्रकट हुए हो, कि मैं तुम्हें छोड़कर किशोरी जी के शरण में जा रहा हूं। इसी लाने तुम प्रकट भए हो। अब तो मैं यह माला तोए न पहनाऊँगो। अब तो यह माल सीधा जाकर किशोरी जी को ही पहनाऊंगो और वही जाकर उनके चरणन की सेवा करुँगो” अब ठाकुर जी बाबा को मानते हुए कभी उनके हाथ पकड़े कभी उनके पैर पकड़े। पर कृष्ण दास जीटस से मस न हुए। और बोले अब ना रुकूंगो। अब तो किशोरी जी के चरणों में ही जाकर रुकूंगो। बाबा सीधे दौड़े जाएं। और पीछे-पीछे ठाकुर जी दौड़े जाए। और बार-बार बाबा से विनती करें। अरे बाबा रुक जाओ नेक रुक जाओ मेरी सुन लो। लेकिन बाबा नहीं रुके और सीधा श्री जी के चरणों में जाकर श्री जी को वह माला सौंप दी और जैसे ही श्री जी को प्रणाम किया तो, श्री राधा जी के साथ श्याम सुंदर दास जी के अद्भुत दर्शन हुए

बोलो श्री लाडली सरकार की जय, कृष्ण कन्हैयाँ लाल की जय।

3. कृपालु श्री जी

पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री राधा रानी प्रतिदिन बरसाने से निधिवन आया करतीं थी। कन्हैया जी और गोपियों के साथ रासलीला करने के लिए। एक दिन रास करके दोनों वापस जा रहे थे। तभी कान्हां जी की नज़र श्री के कोमल पैरों पर पड़ी, उन्होनें देखा किश्री जी के पैरों में ब्रज की रज यानी मिट्टी लगी हुई है। जो कि राधा रानी के सुंदर-सुंदर से पैरों की शोभा बिगाड़ रहें हैं। कान्हां जी बोले राधे आपके पैरों में बहुत मिट्टी लगी है। लाइए में इन्हें साफ कर देता हूं। और यह कहते हुए कन्हैया जी राधा रानी के चरणों के पास बैठ जाते हैं। और जैसे ही श्री जी के पैरों का स्पर्श करने लगते हैं। श्री जी अपने पैर पीछे खींच लेती है। और कान्हां जी से कहती है। नहीं-नहीं कुछ मत करिए। इन्हें ऐसे ही रहने दीजिए।

कान्हां जी को लगा कि शायद श्री जी उनके हाथों से चरण सेवा नहीं करवाना चाहती हैं। इसलिए हिचकीचा रही है।हो सकता है, इसीलिए उन्होंने अपने पैर पीछे कर लिए, और फ़िर दोनों चलते-चलते यमुना के किनारे आ पहुंचे। कान्हां जी बोले राधे अब तो यमुना जी सामने हैं। अब तो यमुना जी के जल से अपने पैरों को धोकर अपने पैरों पर लगी मिट्टी को हटा दीजिए। तब श्री जी ने फ़िर से मना कर दिया। कन्हैया जी सोच में पड़ गए। कि आख़िर राधा रानी ऐसा क्यों कर रही हैं? उन्होंने श्री जी से पूछ ही लिया कि हे राधे आख़िरकार आप इस मिट्टी को अपने पैरों से हटा क्यों नहीं देती।

तब राधा रानी कान्हां जी से मुस्कुरा कर बोली, कि एक बार जो हमारे चरणों से लग जाता है। हम उसे अपने आप से किसी भी क़ीमत पर दूर नहीं करते हैं। फ़िर चाहे वह कोई प्राणी हो, या रज। इतना सुनते ही कान्हां जी के आंखों से अश्रु धारा बहने लगी। और वे तुरंत श्री जी के चरणों से लिपट गए। और बोले हे, राधे मैं भी तो यही चाहता हूं। कि आप मुझे अपने आप से कभी दूर न करें। तो, ऐसी दयालु और कृपालु है। हमारी श्रीजी। इसलिए हमें उनकी चरण शरण में चले जाना चाहिए फ़िर हमारा जीवन उनके हाथों में होता है।

जय जय श्री राधे

4. कहीं लाला को हिचकी न लग जाएँ

पौराणिक कथाओं के अनुसार वृंदावन में बिहारी जी के एक अनन्य भक्त रहा करती थी। नाम था कांत भाई बाई। वह ठाकुर जी को लाला कह कर पुकारती थी। और उन्हें बड़े लाड दुलार के साथ रखती थी। प्रतिदिन नियम धर्म के साथ पूजा पाठ किया करती थी। एक दिन कांताबाई घर के सारे काम निपटाकर अपने लाला को भोग लगाकर, और उन्हें विश्राम कर, खुद भी विश्राम करने चली गई। फ़िर अचानक़ से उन्हें जोर-जोर से हिचकी आने लगी। कांताबाई इन हिचकियों से परेशान होकर बेचैन होने लगी।

तभी कांताबाई की पुत्री माँ से मिलने उनके घर पर आई। जिसका विवाह पास के ही गांव में किया हुआ था। और जैसे ही वह कांताबाई से मिली उनकी हिचकियां रुक गई। और अब वह अच्छा महसूस करने लगी। फ़िर उन्होंने अपनी पुत्री को सारा वृतांत कह सुनाया। कि कैसे इन हिचकियों के कारण उनकी जान पर बन आई थी। तब कांताबाई की पुत्री ने कहा कि “माँ मैं तुम्हें सच्चे मन से याद कर रही थी। तभी तुम्हें हिचकी आई होगी। यही कारण है। कि तुम्हें इतनी हिचकी आ रही थी। और अब जब मैं आ गई हूं, तो देखो तुम्हारी हिचकियां भी बंद हो गई है”। कांताबाई हैरान हो गई। पुत्री से बोली कि “ऐसा भी भला होता है, क्या”? तब पुत्री ने कहा -“हाँ माँ यह बात सौ प्रतिशत सच है! ऐसा ही होता है। जब भी हम किसी अपने को मन से याद करते हैं। तो उस समय हमारे अपने को हिचकी आने लगती है”।

तब कांताबाई गहरी सोच में पड़ गई। उनका ध्यान सीधा अपने लाला की ओर गया। और कहने लगी। “हे राम मैं तो ठाकुर जी को हर पल याद करती हूं, यानी कि मेरे छोटे से लाला को भी हिचकियां आती होगी। हाय रे मेरा छोटा सा लाला, हिचकियों में कितना बेचैन हो जाता होगा? अब से ऐसा नहीं होगा। मैं अपने लाला को परेशान नहीं देख सकती। अब से मैं उन्हें याद करके उन्हें परेशान नहीं करूंगी”। और उसी दिन से कांताबाई ने ठाकुर जी को याद करना छोड़ दिया। और अपने लाल को भी अपनी पुत्री को सौंप दिया। और कहा कि अब इनकी अच्छे से सेवा करना। और फ़िर उस दिन के बाद कांताबाई ने एक पल के लिए भी ठाकुर जी यानी कि अपने लल्ला को याद नहीं किया। और ऐसा करते-करते कई दिन बितनें को आए।

और फ़िर जब एक दिन कांताबाई सो रहीं थीं। तो साक्षात बांके बिहारी जी कांताबाई के सपने में आते हैं। और कांताबाई के पैर पड़करख़ुशी के आंसू रोने लगते हैं। कांताबाई एकदम से चौंक कर जाग जाती है। और उठकर उन्हें उठकर प्रणाम करते हुए रोने लगती है। और कहती है। कि “हे प्रभु आप तो उन्हें भी नहीं मिल पाए, जो वर्षों तक समाधि लगाकर निरंतर आपका ध्यान करते हैं। फ़िर मैं पापन जिसने आपको याद तक नहीं किया, और आपको बिसरा दिया है। फ़िर आप मुझे दर्शन देने कैसे आ गए”? तब बिहारी जी ने मुस्कुरा कर कहा- “मैया यदि कोई भी मुझे याद करता है। या तो उसके पीछे उनका किसी वस्तु का स्वार्थ होता है। या फ़िर कोई साधु भी मुझे याद करता है। तो उसके पीछे भी उसकी मुक्ति पाने का स्वार्थ छिपा होता है। लेकिन तुम धन्य हो मैया तुम ऐसी पहली भक्त हो! जिसने यह सोचकर मुझे याद करना छोड़ दिया। कि कहीं मुझे हिचकी आती होगी। और मुझे पीड़ा होती होगी। मेरी इतनी परवाह करने वाली मैया मैंने पहली बार देखी है। बस तभी कांताबाई अपने मिट्टी के शरीर को त्याग कर। अपने लाला में हमेंशा के लिए समा जातीं हैं।

इसलिए हम सभी को यह समझना चाहिए कि भगवान हमारी भक्ति और चढ़ावें के भूखे नहीं होते हैं। वें तो भक्त के प्रेम व भाव के भूखे होते हैं। बोलो बांकें बिहारी लाल की जय

5. कर्मा बाई की खिचड़ी

जगन्नाथ पुरी में कर्मा बाई नाम की एक महिला रहती थी। जो कि कृष्ण की अनन्य भक्त थी। उनका ठाकुर जी के साथ ऐसा प्रेम था कि स्वयं भगवान श्री कृष्णा लक्ष्मी कर्मा बाई के हाथों की खिचड़ी खाने आते थे। कर्मा बाई प्रतिदिन सवेरे उठते ही ठाकुर जी के लिए बड़े प्रेम से खिचड़ी बनाती, और थाली में खिचड़ी परोस कर भगवान के आगे रख देती। कुछ देर बाद भगवान खिचड़ी खाते और थाली साफ़ हो जाती। भगवान को खिचड़ी खिलाने के बाद ही कर्मा बाई स्नान ध्यान व अन्य कर्मों में लग जाती। इसी प्रकार से यह क्रम निरंतर चलता जा रहा था।

एक दिन कर्मा बाई श्री कृष्ण को भोग लगाकर बैठी ही थी। तभी वहां पर एक नन्हा बालक आया और कर्म बाई से कहने लगा। मैया बड़ी भूख लगी है। क्या कुछ खाने को मिलेगा कर्मा बाई बोली क्यों नहीं बेटा मैंने अभी-अभी खिचड़ी बनाई है। आजा बैठ जा तू भी खिचड़ी खा ले। यह कहकर कर्मा बाई ने बड़े प्यार से उसे बालक को खिचड़ी पड़ोसी और बालक ने भी बड़े ही जो से स्वाद लेकर खिचड़ी खाई उस बालक के रूप में स्वयं श्री कृष्णा जगन्नाथ जी कर्मा बाई की खिचड़ी खाने साक्षात पधारे थे। बालक ने जल्दी से खिचड़ी खाई। और कर्मा बाई कहा मैया तुम खिचड़ी तो बहुत ही स्वादिष्ट बनती हो। क्या मैं कल भी खिचड़ी खाने आ जाऊं।

इस पर कर्मा बाई बोली कल क्या बेटा तू हर रोज आ जाया कर। मैं तेरे लिए हर रोज खिचड़ी बनाकर रखूंगी। बालक ने कहा ठीक है, मैया मैं कल फिर आता हूं। अगले दिन से वह बालकप्रतिदिन सुबह सवेरे कर्मा बाई के पास खिचड़ी खाने आने लगा। और कर्म बाई भी प्रतिदिन सुबह सवेरे उठकर सबसे पहले खिचड़ी बनाती और ठाकुर जी को भोग लगाती। और फ़िर कुछ ही देर बाद वह बालक आ जाता। फ़िर कर्मा बाई उसे भी बड़े प्रेम से खिचड़ी खिलाती।

एक दिन कर्मा बाई की कुटिया के पास एक साधु आया बातों ही बातों में पता चला कि कर्मा बाई प्रतिदिन बगैर नहाए ही ठाकुर जी के लिए भोग तैयार करती हैं। और उन्हें भोग लगाती हैं। उसने कर्मा बाई से कहा कि बगैर स्नान ध्यान किए बिना भगवान के लिए भोग बनाने व भोग लगाने से पाप लगता है। इसीलिए उसने कर्मा बाई को स्नान करके पूरे विधि विधान से पूजा करके फ़िर भोग लगाने को कहा।

साधु के ऐसा कहने पर भोली भाली कर्मा बाई अगले दिन से सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद खिचड़ी बनाने लगी। और फ़िर विधि-विधान से पूजा इत्यादि करने के बाद ही भगवान को भोग लगाने लगी। लेकिन वह बालक तो हर रोज अपने ठीक समय से आ जाता। और कर्मा बाई से कहता मैया मुझे भूख लगी है। और कितना समय लगाओगी मुझे जल्दी खिचड़ी खिला दो न मुझे वापस भी जाना है। और जब तक उसे खिचड़ी नहीं मिल जाती वह यही रट लगाए रहता। मैया जल्दी करो, मैया जल्दी करो और जब कर्मा बाई ठाकुर जी को भोग लगाने के बाद उस बालों को खिचड़ी देती। तो, बालक उस खिचड़ी को बड़ी जल्दी-जल्दी खाता और बगैर हाथ मुंह धोए भाग जाता। और यह क्रम कुछ दिनों तक यूं ही चलता रहा।

और फ़िर इन्हीं दिनों हर दिन भगवान जगन्नाथ जी के मुख पर खिचड़ी लगी हुई होती। यह देखकर भगवान जगन्नाथ की सेवा में रहने वाले पुजारी जी, जो स्वयं श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। वह सोच में पड़ जाते। कि यह भगवान के मुख पर हर रोज खिचड़ी कैसे लग जाती है? हम तो खिचड़ी का भोग नहीं लगाते? तो फ़िर यह खिचड़ी आती कहाँ से है? कुछ दिनों तक भगवान जगन्नाथ जी के मुख पर खिचड़ी लगी देखने पर पुजारी इसे भगवान की लीला मानते हुए समझ गए। कि भगवान ज़रूर भेज बदलकर कहीं से खिचड़ी खाकर आते हैं !

वह मन ही मन भगवान का ध्यान करके प्रभु से पूछते है। कि हे, प्रभु आप कहां से खिचड़ी खाकर आते हो। हमें भी तो बताओ। उसी रात भगवान जगन्नाथ जी पुरी के, पुजारी के सपने में आते हैं। कि कहते है। मेरी एक अन्य भक्त है। कर्मा बाई जो यही जगन्नाथ पुरी में रहती है। और हर रोज़ सुबह सवेरे मेरे लिए बाजरे की खिचड़ी बनाती हैं। और बड़े प्रेम से मेरे स्वरुप को भोग लगाती हैं। और मैं भी हर रोज़ कर्मा बाई के पास खिचड़ी खाने जाता हूं। और मुझे उस मैया के हाथ की बनी खिचड़ी बहुत पसंद है। परंतु कर्मा बाई के पास एक साधु आया। और कर्मा बाई को स्नान ध्यान आदि करके और विधि विधान से पूजा करने के बाद ही भोग लगाने को कह गया।

इसलिए मैया आजकल विधि विधान से पूजा इत्यादि करके भोग लगती है। और फ़िर मुझे खाने को देती है। यह सब काम करने में मैया को बहुत समय लग जाता है। और मुझे खिचड़ी के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। और भूख का कष्ट भी सहन करना पड़ता है। जब तक मैं खिचड़ी खाता हूं। तब तक यहां मंदिर में भक्तजन आने लगते हैं। इसलिए जल्दी-जल्दी खिचड़ी खाकर मंदिर के लिए दौड़ पड़ता हूं। और हाथ मुंह तक नहीं पौंछ पाता हूँ । पुजारी जी समझ गए और यह क्रम कई दिनों तक यूं ही चलता रहा।

और एक दिन कर्मा बाई संसार त्याग कर प्रभु में विलीन हो गई। उस दिन भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी के श्री विग्रह के नैनों से अश्रु धारा बह रही थी। यह देखकर मंदिर के सभी पुजारी और जगन्नाथ पुरी के राजा भी मंदिर में स्थित हुए। और भगवान से प्रार्थना करनेलगे। कि, हे प्रभु हमसे क्या कोई भूल हो गई है। जो आपकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। हमें क्षमा कीजिए उसी रात को भगवान जगन्नाथ पुरी के राजा एवं पुजारी के सपने में आए। और बोले आज मैया कर्मा बाई इस लोक से विदा होकर मुझ में विलीन हो गई है। परंतु अब मुझे सुबह सवेरे बाजरे की खिचड़ी कौन खिलाएगा?

अगले दिन जगन्नाथ पुरी के राजा ने पुजारी और संतों की राय ली और यह निर्देश जारी किया। कि, आज से भगवान जगन्नाथ जी को सुबह सवेरे सबसे पहले माँ कर्मा बाई की ओर से बाजरे की खिचड़ी का भोग लगाया जाएगा। जिसे खाकर भगवान जगन्नाथ जी को माँ कर्मा बाई की कमी महसूस नहीं होगी। इसीलिए उस दिन से लेकर अब तक भगवान श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में श्री जगन्नाथ जी के विग्रह को 56 भोग से पहले बाल रूप में बाजरे की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। और इसे बाल भोग कहा जाता है। सैकड़ो वर्षों के बाद भी माँ कर्मा बाई की याद में यह प्रथा आज भी वैसी की वैसी ही चली आ रही है।

बोलो श्री जगन्नाथ भगवान् की जय

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