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“मन की बातें”
“आईना -ए – ज़िंदगी“
“आइना ऐसा ज़िंदगी की सच्चाई को बयां करे जैसा”
प्रिय पाठको हम सभी की अपनी -अपनी एक सोच होती है, विचार होते हैं। हम अपने आसपास के वातावरण बहुत कुछ सीखते हैं। हमें सबक मिलते हैं। कुछ दृश्य हमे ऐसे दिखाई देते हैं। कि हम उन्हें देखकर ख़ुश हो जाते हैं, एकदम खुश़नुमा। तो कुछ दृश्य हमें दुखी कर जाते हैं। बस यही तो ज़िंदगी का फेर बदल है। सीखने का नाम ही ज़िंदगी है।
हम अपनी छोटी-छोटी बातों से छोटी-छोटी चीजों से छोटी-छोटी हार जीत से, तो कभी अपने से छोटों से तथा कभी अपने से बड़ों से हम कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं।
तो ऐसी ही बातें कुछ मेरे मन में कभी-कभी उमड़ जाया करती है। कभी-कभी क्या अक्सर उमड़ा करतीं हैं। जिन्हें मैं अपनीं लेखनी के माध्यम से आप तक पहुंचाना चाहती हूं। मैं एक लेखिका हूं, तो किसी भी चीज़ को देखकर मेरे मन में कुछ भावनाएं उमड़ने लगती है, बस उन्हीं से प्रेरित होकर मैंने अपने मन की कुछ बाते व अपनी सोच कविताओं एवं रचनात्मक लेखों के माध्यम से यहां पर आपके समक्ष रखी है। और साथ ही आशा करती हूं। कि आपको मेरे ये सभी लेख व कविताएँ अवश्य पसंद आयेंगे! अगर आपको मेरे द्वारा लिखे गए लेख पसंद आएं हो, या इनमे कोई त्रुटि हो। तो कृपा कर कमेंट ज़रुर कीजिए।
मेरी वेबसाइट को अपना क़ीमती समय देने के लिए सहेदिल से आपका आभार व्यक्त करती हूं! धन्यवाद
राधे राधे 🙏
विशेष जानकारी – आप सभी की जानकारी के लिए बता दूँ। कि यह सभी लेख स्वयं मेरे
“मेरा अनुभव“

आज मे अपने पाठकों के साथ अपनी एक और मन की बात साझा करने आई हूँ। जो की मैंने हर बार की तरहं अपने अनुभव से ही सीखा है। कि यदि जब भी कभी हमारा मन अशांत हो और हमें लगे कि हमसे ज़्यादा दुःखी इस दुनियाँ में कोई नहीं है। मेरे हिसाब से तो, ऐसा सोचना सरासर ग़लत होगा।
कि अपने ग़म से ज़रा बाहर तो निकलिए ज़नाब,
ग़र ग़लती से भी दुसरो की दर्द भरी दास्तां सुन लोगे तो,
अपना ग़म भूलने पर मज़बूर हो जाओगे – – – – –
कि इस जहाँ में कोई भी ग़म, दुःख, परेशानी से अछूता नहीं हैं। बाहर निकल के देखोगे तो पता चलेगा की यहाँ हर कोई इंसान दुखी है। किसी को संतान का दुःख, कोई नौकरी पाकर दुःखी है। तो कोई नौकरी न पाकर दुःखी है। किसी को क़र्ज़ का दुःख, देखा जाए तो यहाँ कोई भी इंसान अपने आप में सुखी नहीं दिखेगा।
आम तौर पर यह कहा जाता है। कि जब भी मन दुःखी हो तो आप शांत वातावरण में चले जाइए। इससे आपकी आत्मा को सुकून मिलेगा। पर मुझे ऐसा नहीं लगता मेरा मानना है। कि जब भी आप दुखों के घेरे में हो तो, आप बाहर सड़क पर जाइए बस स्टैंड पर जाइए। अस्पताल का चक्कर लगाइए। वहां पर आपके सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे
यदि आप सड़क पर जाते हैं तो आपको कई लोग दिखेंगे। हर कोई भागमभाग में होगा। किसी को किसी की ख़बर नहीं होगी। हर कोई अपनी-अपनी मंजिल की ओर जाता दिखाई देगा। तब आपको लगेगा कि हां जिंदगी का नाम ही भाग दौड़ है। मैं अकेला ही इस दुनियाँ में नहीं हूं। और अगर आप और भीड़ भरी जगहं में जाते हैं। तो आपको कुछ और ज़्यादा सीखने को मिलेगा।
क्योंकि मैंने ख़ुद के अनुभव से सीखा है। जब मेरा बेटा विदेश पढ़ाई के लिए गया। तो उन दिनों मैं उसे लेकर बहुत चिंतित रहती थी। कि वह विदेश में अकेला रहता है। उसे अपना ख्याल खुद रखना पड़ेगा। कपड़े धोने से लेकर खाना पकाना और पढ़ाई भी करनी है। सब कुछ कैसे मैनेज करेगा। यही सोचती हुई बाजार पहुंची। वहां पर जैसे मेरे सारे डाउट क्लियर हो गए।
वहां पर मैंने देखा एक करीब 11-12 साल का एक बच्चा जो 6th क्लास में पढ़ रहा था। साथ ही वह हर रोज़ स्कूल के बाद शाम को भेलपुरी बेचा करता। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। वह एक बड़ा सा चाकू लेकर टमाटर प्याज व बाकि सब्ज़ियां काट रहा था। जब मैंने यह सब देखा तो मैंने मन में सोचा कि, मैं फालतू में ही इतना डर रही थी। यह कितना छोटा बच्चा है। मेरा बेटा तो फ़िर भी पूरा 19 साल का एक नौजवान है। जैसे मुझे मेरे सवालों के ज़वाब मिल गए हो।
हर किसी को उसके सवालों के जवाब आसपास के माहौल से जरूर मिल सकतें है। बस ज़रूरत है, तो थोड़ा ग़ौर करने की।
एक बार ज़रा अस्पताल का चक्कर लगा आओ तो पूरी चिंता ही खत्म हो जाएगी। आपको पता चलेगा, कि इंसान का सबसे बड़ा धन उसका स्वस्थ शरीर है। यदि आप स्वस्थ हो तो आपसे ज्यादा धनी और कोई नहीं!
और यदि शरीर में रोग लग जाए तो लाख भी खाक हो जाते हैं। और यदि आपकी काया स्वस्थ है। निरोगी है। तो आप ख़ाक से भी लाख बनाने की क्षमता रखते हो – – – – –
“अटपटी, चटपटी कहानी कपड़ों की “

क्या कहूं? कहां से कहूं? पर कहना भी जरूरी है, न जाने कौन सा कीड़ा काट खाया है, हमें! कि मुझे लिखने का जुनून है।खिड़की के पास दो पल क्या बैठी बाहर नज़र पड़ी। तो, देखा कि, बाहर मस्त हवा चल रही थी। मार्च का महीना शाम की गुनगुनी सी ढ़लती धूप थी। रस्सी पर कपड़े लहरहा रहे थे। ऐसा लग रहा था, कि मानो वे मंद मंद मुस्कुरा रहे हों ।
दिन भर की कड़ी धूप थी। अचानक ठंडी बयार चलने लगी, तो मानो जैसे वह भी मुस्कुरा रहे थे। अच्छा, एक बात और गौर कीजिएगा! कभी देखना गर्मी की भरी दोपहर में कपड़ों को सूखने डालो तो, थोड़ी देर बाद में रूआं से दिखते हैं। उनके रंग भी उड़े-उड़े से रहते हैं। और वे पापड़ से नज़र आते हैं!
और भैया सर्दी के मौसम का कहना ही क्या ? कभी सर्दी के मौसम में देखना जब हफ्तों भर सूरज चाचा के दर्शन नहीं होते। तो बेचारे ये कपड़े सीले-सीले से पड़े रहते हैं। ऐसा लगता है। कि मानो इन्हें भी सर्दी ज़ुकाम हो गया हो ।
और कभी जब सर्दी में मस्त कड़क धूप निकली हो, और सूर्य की किरणें सीधे इन कपड़ो पर पड़ती है। तो हर एक कपड़ा अपने आप में कमाल सा दिखता है। बस अंदर से फील करने की ज़रूरत है! क्योंकि जीवन के हर एक हिस्से में कहानी है,
चलिए, अब जब कपड़ों की बात चल ही रही है! तो, हर किसी के साथ तो मैं नहीं कह सकती लेकिन मिडिल क्लास के साथ यह ज़रूर होता होगा, और हर किसी के साथ होता होगा, कि जब भी कोई नया कपड़ा आता है। तो उसको कैसे सहेज कर रखा जाता है, एकदम से उसको संभाल-संभाल कर शॉपिंग बैग से निकाला जाता है। उसके बाद उसको पहनने के बाद बड़ी सावधानी के साथ कुछ खाया पिया जाता है। कपड़ों को उतारने के बाद इधर-उधर नहीं फेंका जाता, बल्कि बड़े संभालकर तय लगाकर या फिर हैंगर में टांग कर रखा जाता है।
और जैसे ही उसको पहली बार धोने की बारी आती है, तो उसके लिए एक खास डिटर्जेंट मंगाया जाता है, जैसे ईजी वॉश में धोया जाता है। उसके बाद उसको मशीन में ड्रायर भी नहीं किया जाता है, कि कहीं कपड़े को कोई चोट न पहुंच जाए, कपड़े सुखाने वाली रस्सी को बार-बार पोंछा जाता है! फ़िर बड़े प्यार से सभी कपड़ों से अलग़ उसे छांव में उसे सुखाया जाता है! और शायद उस वक़्त वह कपड़ा भी अपनेआप में थोड़ा इतराकर रस्सी पर मस्त लहराता है।
पर अफ़सोस कि यह सिलसिला उसके साथ दो-तीन बार ही, हो पता है।
क्योंकि उसके बाद फ़िर उसको उसकी औकात दिखा दिया जाता है, वह सीधा मशीन के अंदर कपड़ों की ढ़ेरी में चला जाता है! और बेचारा कपड़ा पुरानी कैटागिरी में आकर अपने रूटीन में आ जाता है।
कपड़ों की यह छोटी-सी कहानीं दरअसल हमारे जीवन की ही झलक है। जैसे कपड़े मौसम, देखभाल और वक़्त के साथ बदलते हैं, वैसे ही हम इंसान भी। नया होने पर सबका ध्यान खींचते हैं, फिर धीरे-धीरे आदत बन जाते हैं। जैसे कि- – – – जब कोई मेहमान हमारे घर में पहली बार आते है। तो पहले दिन खाने की मेज़ कई प्रकार के व्यंजनों से पूरी तरहं भर जाती है। और उनके साथ भी यह सिलसिला बस कुछ ही दिनों तक चल पता है। फ़िर धीरे-धीरे उनकी थाली से एक-एक चीज़ें कम होती जाती हैं। औरआख़िर में एक हफ़्ते बाद ही, उनकी थाली मे भी दाल खिचड़ी आ जाती है। पर हमें यह याद रखना चाहिए – – – – -कि हर कपड़ा, हर इंसान, हर पल… अपने आप में बेहद अनमोल हैं। इन्हें सहेजने के साथ -साथ समझने की भी अति आवश्यकता है।
यह तो थी। कपड़ों की कहानी ऐसी ही कईं रोचक कहानियों के साथ हमसे जुड़े रहे।
सांसों का खेल

क्या आपनें कभी एकांत में बैठकर सोचा है? कि आख़िर ये जीवन क्या है? जीवन और कुछ नहीं बस सांसों का खेल है! बिल्कुल सही जब तक हमारी सांसे चलती रहेंगी । यह प्रमाण है। कि हम जिंदा हैं। और अगर हम जिंदा है । तो लाज़मी है। कि जीवन में उतार-चढ़ाव सुख-दुःख सभी का आना जाना रहेगा।
अच्छा कभी वेंटिलेटर मशीन को देखना जो मरीज को लाइफ सपोर्ट के लिए लगाई जाती है। जब तक इंसान जिंदा होता है। तो मशीन की लाइन ज़िग-ज़ेग यानी ऊपर नीचे टेढ़ी-मेढ़ी चलने लगती है। तो समझो व्यक्ति जिंदा है। इसकी सांसे अभी भी चल रही है। यानी कि वह जिंदा है।
और यदि इसी मशीन की लाइन एकदम सीधी हो जाए तो समझो सब ख़त्म । बस कुछ ऐसा ही ज़िंदगी का खेल है। जब तक तन में प्राण है। तब तक सांसारिक मोह माया भी है। जीवन में सुख-दुःख के उतार -चढ़ाव भी आते जाते रहेंगे।
इसीलिए समय रहते हमें यह जान लेना चाहिए। कि जीवन का नियम ही सुख-दुःख है। ज़िंदगी का उसूल थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा है। सीधी-सादी ज़िंदगी तो यहां किसी की भी नहीं है।
तो फ़िर क्यों न जितना है । उसी में संतुष्ट रहा जाए और जीवन के हर एक सत्य को स्वीकार करते हुए, ज़िंदगी के इस सफ़र का आनंद लिया जाए।
क्योंकि किसी ने की ख़ूब कहा है —-
“कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं जमीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता”
“ये बाल धुप मे सफ़ेद नहीं हुए”

इंसान बूढ़ा नहीं होता है। बल्कि उसकी सोच बूढी होती है। अक्सर किसी बुज़ूर्ग व्यक्ति को बूढ़ा कहकर सम्बोधित किया जाता है। अब यहाँ गलत है। या सही ! इस चक्कर में न पढ़कर, हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि – ये बुढ़ापा ऐसे ही थोड़े ही न आया होगा। बल्कि हम सभी के लिए सोचने वाली बात ये है, कि जितनी अधिक वयक्ति की उम्र होगी। उतना अधिक तज़ुर्बा होगा।
जहां तक मेरा मानना है। कि, किसी भी उम्रदराज़ बुजुर्ग़ को, बूढ़ा कहने की बजाए तजुर्बेदार कहना उचित रहेगा। वो कहावत तो सुनी ही होगी। कि – “ये बाल धूप मे सफ़ेद नहीं हुए है”? या फ़िर- “हमने अब तक तुम से ज़्यादा दिवाली देखी है”। ये कहावतें ऐसे ही नहीं बनी। इसके द्वारा हमें यह बताया जाता है। कि, वे हमसे बहुत पाहिले ही इस दुनियाँ में आये थे। जितनीं अधिक व्यक्ति की उम्र होगी। उतना अधिक तज़ुर्बा होगा।
आमतौर पर अक्सर ये देखा जाता है। की नियम के अनुसार इंसान रिटायर हो जाता है। और ये सही भी है। काफ़ी लम्बे समय तक काम करने के बाद कुछ वक़्त ख़ुद के लिए भी ऱखना चाहिए। अब ये हम पर निर्भर करता है। कि हम ,इसे किस तरह से देखते है।
मेरा मानना तो यही है। कि,भले ही आप अपने काम से रिटायर हो जाएं। पर,अपनी स्फूर्ति और आत्मविश्वाश को रिटायर मत होने दीजिये। जब तक अपनेख़ुद के दम पर चला जाये चलते रहिए। समय से पहले बुढ़ापे की लाठी मत खोजिए ? यदि आप सक्षम है।तो जन-सेवा में मन लगाइए। औरजितना संभव हो सके, इस सोच से दूरी बनाइये, कि कोई आपकी सेवा करे। जब तकशरीर साथ दे, तब तक अपना कार्य स्वयं करें।
अब आप कहें कि सारी उम्र भाग-दौड़ में गुज़ार दी। अब बुढ़ापे में भी आराम न करे ? ग़लत, बल्कि हमे इसके विपरीत यह सोच रखनी चाहिए -कि सारी ज़िंदगी जीवन यापन की भाग दौड़ में गुज़ार दी क्यों न अब स्वयं को थोड़ा वक्त दिया जाए! सभी के लिए आज तक जीते आए, क्यों न अब ख़ुद के लिए जिया जाए! सुबह कसरत कीजिए धर्म कर्म के कार्य कीजिए जरूरतमंदों को अच्छी सलाह दीजिए अंत समय के आनंद के लिए प्रभु की सेवा भजन कीजिए..
Nisha Shahi
. “शहर की देखादेखी”

वह हरा भरा गाँव वो ऊँची – नीची पगडंडिया वो अमरूद के बाग़ खेत खलिहान, ताज़ी हवा, गाँव के वो भोले-भाले लोग। वो सादगी भरा जीवन। वो गाँव का स्कूल। जी हाँ! मैं बात कर रही हूं। अपने गांव की। उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव की जो अब शहर में तब्दील हो चूका है। कभी ये एक बड़ा ही ख़ूबसूरत सा गावँ हुआ करता था।
कभी वहां की साधारण सी दिनचर्या हुआ करती थी। सादा भोजन। बच्चों के हाथ में चिप्स चॉकलेट की जगह देसी घी के बने लड्डू होते थे, घर में बनाए गए आलू के चिप्स स्नैक्स के रूप मे बच्चे बड़े शौक से खाते थे। उस वक्त आजकल की तरहां रेडी टू ईट फ्रोज़न फ़ूड नहीं होते थे। चावल से बनाई गई चकली होती थी। जो घर पर ही बनाई जाती थी। नूडल्स की जगह नमकीन सेवईं खाई जाती थी। तब के बच्चे हष्ट-पुष्ट हुआ करते थे। हर किसी के घर में फलों से लदे पेड़ हुआ करते थे।
घर-घर में मौसमी सब्जियां उगाई जाती थी। जैसे किसी के घर में तुरई ज़्यादा हो गई। या किसी के घर में लौकी लदी पड़ी है। तो पड़ोसी आपस में मिल बाटकर खा लिया करते थे, इस तरहां मिल बांटकर अलग-अलग सब्ज़ी का मजा लिया करते थे।
पड़ोसी भी रिश्ते निभाने में कभी पीछे नहीं हटते थे। अगर पड़ोसी का बच्चा कभी स्कूल से भूख प्यासा आए और घर में पसंद की दाल सब्जी न मिलने पर उदास हो जाए। तो दौड़कर पड़ोस वाली चाची ताई के घर जाकर कहता चाची, आज आपने कढ़ी बनाइ है, न! ज़रा एक कटोरी देना। मैं घर से आपके लिए तुअर की दाल ले आता हूं। आज मेरा दाल खाने का मन नहीं है, तो सामने से चाची कहती हां-हां बेटा बिल्कुल अभी लाती हूं। मैं तेरे लिए,
तो ऐसी होती थी। गांव की ज़िंदगी। वह सर्दियों का मौसम आज भी याद है. सारी आंटियां धूप में बैठकर स्वेटर बनाया करती थी। एक स्वेटर जैसे एक ही दिन में तैयार हो जाता था। आप सोचेंगे भला वो कैसे? वो ऐसे कि आज बंटी का बनेगा। तो, कल सीमा का, यानी कि एक के पास आगे का पल्ला, एक के पास पीछे का पल्ला, एक के पास आस्तीन तो एक के पास एक आस्तीन। तो, दूसरी के पास दूसरी आस्तीन। इस तरहां से हो गया न, एक दिन में एक स्वेटर तैयार! जी हाँ कभी ऐसा हुआ करता था, गॉँव ! जहां हर काम मिल बांटकर होता था।
पर धीरे-धीरे काम की तलाश में ग्रामीणों का गावँ से शहरों की तरफ़ पलायन होने लगा। शुरू-शुरू में तो उन्हें गांव की याद सताने लगी। फ़िर जैसे, धीरे-धीरे वे शहर की चकाचौंध में खो से गए अब जब भी वे शहर से गांव आते तो उन्हें गांव की सौंधी मिट्टी भी धूल लगने लगती।
शहर की देखा देखी में गांव में भी पक्की सड़क बनवाई गई। सड़क बन गई। चलो अच्छी बात है, पर इससे गांव और शहर का फांसला थोड़ा कम हो गया। जो कि पहले तो अच्छा लगा किंतु बाद में घातक साबित होता गया शहर की देखा देखी में धीरे-धीरे लोगों ने जमीनो से पेड़ों को काटकर बड़े-बड़े मकान बनवाए। दुकानें बनवाई।
जो सब्जियां खेत में हरी भरी लगी हुई दिखती थी। अब वे दुकानों में मुरझाई सी पड़ी मिलतीं हैं। अब वहां पर बच्चे गिल्ली डंडा कबड्डी नहीं खेलते। सबके हाथों में स्मार्टफोन नज़र आता है। गांव और शहर का फांसला कम क्या हुआ, गांव कब शहर में बदलता गया, पता ही नहीं चला।
अब तो पड़ोस भी अपना सा नहीं लगता। पहले सबके आंगन खुला हुआ करते थे, अब तो बड़े-बड़े गेट लग गए हैं। अब तो सभी की खिड़कियां भी बंद रहती हैं, किसके घर में खाने में क्या पका है। उसकी ख़ुशबू भी बंद दरवाज़े में ही कहीं खो सी गई है।
हम शहर के आकर्षण में ऐसे फंसे की प्यारे से गांव को सिटी बना दिया। अब तो, “गाँव” कविता और किताबों में ही दिखते हैं, या फ़िर कहीं ऊंचे पहाड़ों में ही मिलते हैं।
शहर की देखा देखी में शायद वो प्यारा सा “गांव” जैसे कहीं खो सा गया..
Nisha Shahi
. “सफ़र ज़िंदग़ी का“

हम सभी जानते हैं। कि ईश्वर ने हमें यह ज़िंदगी दी है। और हमें इस जीवन को हँसी ख़ुशी जीना चाहिए।
अच्छा हममें से कितने लोग सही मायने में जानते हैं। कि आख़िर सही मायने में ज़िंदगी क्या है? सब का तो पता नहीं, पर जहां तक मेरा मानना है। तो मैं कहूंगी, कि,
ज़िंदगी एक यात्रा है। और यहाँ पर हम सभी इस सफ़र का हिस्सा हैं। समय-समय पर ज़िन्दगी के इस सफ़र में बहुत से उतार-चढ़ाव आते हैं। जीवन रूपी यह बस जिसमें हम सभी सवार हैं। कभी-कभी यह बहुत हिचकोले खाती है। साधारण सी रफ्तार से चलने वाली ज़िंदगी, में अचानक से दुःखों की ढलान आ जाती है। तो वहीं अचानक से डर की चढ़ाई भी आती है। यह चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते अक्सर बेबसी से सांसे फूलतीं जाती है। कभी सुख के एहसास से ज़िंदगी की गाड़ी मक्खन सी दौड़ी चली जाती है!
यह जिंदगी है। साहब! ज़िंदगी का कोई पता नहीं यारों ये न जाने कब किसको किससे जोड़ती जाती है। ये हर रोज़ कितने रिश्ते तोड़ती है। और पल भर में कितने रिश्ते जोड़ती जाती है। किसी की इससे अपने आप बन जाती है। तो किसी की सांसे थम जातीं है।
कहनें को तो एक छोटा सा शब्द है। “ज़िंदगी” पर एक बहुत बड़ा सबक है। ज़िंदगी एक किताब है, जिसका हर एक पन्ना पढ़ना बेहद ज़रूरी है। जिंदगी कभी एक कलम है। हम जैसी सोच के साथ इसे लिखेंगे यह वैसी ही कहानी तैयार हो जाएगी।
कभी जीत है, तो कभी हार है। ज़िंदगी।
जिसकी कोई मिसाल नहीं, बेमिसाल है, ज़िंदगी।
एक सबक है। ज़िंदगी़, जिसनें इसे ख़ास अंदाज से जीना सीख लिया।
उसकी फ़िर गुलाम है, ये ज़िंदगी।
इसलिए जिंदग़ी के इस ख़ूबसूरत सफ़र के हर एक पल का भरपूर आनंद लिजिए।
यदि जीवन में सुख आये तो घमंड न करके सरल रहिए। और यदि दुःख आये तो विचलित न होकर धैर्य रखें और हिम्मत से काम लें।
फ़िर देखिए जीवन जीने का आनंद न आए तो कहना !
राधे राधे
Nisha Shahi
.” ईश्वर का धन्यवाद करना बेहद ज़रूरी है”

जैसा कि हम सभी जानते हैं। कि सुख दुःख जन्म मृत्यु आना जाना जीवन का एक अहम हिस्सा है। फिर भी हम सभी इस सच्ची से भागते फिरतें हैं। क्योंकि है। तो हम इंसान ही न। जब भी हम पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। तो अक्सर हम उसे सहन नहीं कर पाते हैं। हम सोचते हैं। कि हमें सदा खुशियां ही मिलती रहे। हमारा जीवन बस यूं हीं सरलता से चलता रहे।
मैंने अक्सर यह देखा है। कि अक्सर बुरे समय में हम हर एक छोटी बड़ी बात क्र लिए ईश्वर को दोष देतें हैं। और अपनी परिस्थिति के लिए, ईश्वर को कोसते हैं। कि ऐसा क्यों हुआ, ऐसा क्यों किया, यह सब मेरे ही साथ क्यों होना था मैंने भी कई बार ईश्वर से शिकायत की हर छोटी बड़ी बात के लिए उन्हें कोसा भी और मुंह से यह तक भी निकल गया। कि भगवान-वागवान कुछ नहीं होता। मुझे नहीं करनी इनकी कोई पूजा इन पर विश्वास नहीं है। पर वो कहते ना है, कि हम चाहे जितना जतन कर ले उस ईश्वर से दूर भागने की परंतु चुंबक की तरहं खींचे चले जाते हैं, फ़िर से उसी के पास क्योंकि दुख की घड़ी में उससे बड़ा सहारा और कोई नहीं होता है।
अच्छा आपने कभी गौर किया है। कि जब बे-हिसाब खुशियां हमारे पास होती है। तब की हम हर पल उस ईश्वर का धन्यवाद करे है। तब तो हम बड़े गुमान से के साथयही कहतें हैं। कि मैंनें करोड़ो की प्रॉपर्टी ली है। मेरे पास महंगी कार है। या कुछ भी जो अच्छा किया। तब वह मैंने ही किया कभी यह कहा है। कि सब ईश्वर ने किया है। ब ईश्वर की देन है। और जब हमारे अपने ही कर्मों की वजह से ठीक इसी का विपरीत होता है। यानी हमारे ऊपर कोई भी विपत्ति आती है। या हमें कोई दुःख मिलता है। तो उस वक़्त हम सारा बिल ऊपर वाले पर फाड़ देते हैं। हम उस ईश्वर को से सवाल करतें हैं। कि तूने सब कुछ ठीक क्यों नहीं किया। कि तूने हमें इतनी बड़ी सज़ा क्यों दी?
कभी सोचा है। कि उस ईश्वर को कितनी तक़लीफ़ होती होगी। जब हर रोज़ करोड़ों लोग उसे कोसते होंगे। कभी सोचना कि, यदि हमारी गलती नहीं होने पर भी कोई हम पर बेमतलब आरोप लगाता है। तो, उस वक़्त हम मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। सोचो उसे ईश्वर की क्या गलती उसने तो सारी सृष्टि की रचना की है। उस ईश्वर ने तो हमें बनाया है। फ़िर हम उसे क्यों कोसते हैं।हम यह क्यों भूल जातें है कि, हम सभी यहाँ अपने-अपने कर्म लेकर आते हैं। भाग्य ऊपर वाला नहीं लिख़ता? हम स्वयं अपने कर्मों के द्वारा अपना भाग्य निर्माण करते हैं।
यदि ईश्वर को ही सब कुछ ठीक करना होता। श्री राम जी वनवास जाते ही नहीं ? क्योँकि रावण की मृत्यु श्री राम जी के हाथों होनी तय थी। इसीलिए श्री राम और रावण का युद्ध हुआ। नहीं तो यह युद्ध कभी होता ही नहीं। और वहीं दूसरी तरफ़ अगर भगवान चाहते तो, महाभारत का युद्ध होने ही क्यों देते ?
यदि सब कुछ ठीक करना होता करना ईश्वर के हाथों में होता तो, दुर्योधन कभी गलत मार्ग पर जाता ही नहीं। एक तरफ़ जहाँ कौरवों ने श्री कृष्ण जी से विशाल सेना माँगी। और दूसरी तरफ़ पांडवों ने स्वयं श्री कृष्ण को ही माँग लिया।
बस यही सत्य है। सुख-दुःख जीवन के सिक्के के दो पहलू है। अगर इस संसार मे आए हैं। तो दोनों परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ेगा। इसीलिए दुःख हो या सुख हमें ईश्वर के फैसले पर कभी उंगली नहीं उठानी चाहिए। वह परमपिता तो सबका है। हम सब उसी की संतान है। हमें परमात्मा से अपने कर्मों की माफी मांगनी चाहिए।
और साथ ही अपने कर्म सदा अच्छे रखना चाहिए।
राधे राधे
Nisha Shahi